मंगलवार, 1 मार्च 2011

कसक

जो कहना है क्यों दिल में रखते हो!
खुद पे रोते हो औरों पे हँसते हो!

बात करने की लोंगों से कहते हो!
पास जाकर क्यों सहमें से रहते हो!

आजकल से नही कब से डरते हो!
अपनी बातों से प्रायः मुकरते हो!!
जीत कर हार से क्यों झगड़ते हो!!!

जो कहना है क्यों दिल में रखते हो!
खुद पे रोते हो औरों पे हँसते हो!!

दांव लगने दो जैसे भी लगता है!!
उसको जलने दो जो तुमसे जलता हो!
होगा बेकार तुम क्यों समझते हो!

राग को रोग सा क्यों बनाते हो!!
साज़ को सेज सा क्यों सजाते हो!!!
हाँथ को रोकलो क्यों बिछाते हो!
कह दो,कहना है जो क्यों बरगलाते हो!!
जो भी कहना क्यों दिल में रखते हो!
खुद पे रोते हो औरों पे ……?
“यश फैज़”

परमाणु समझौता : रोजगार और संसाधनिक विकास में योगदान

हाल में भारत और अमेरिका के बीच सम्पन्न हुए परमाणु समझौते से भारत को राजनैतिक,कूटनीतिक और सामरिक लाभ की संभावना पर तर्क-कुतर्क संभावित है,लेकिन इस परमाणु समझौते पर हुए दोनो देशों की सहमती से संसाधनिक मसलन बिजली,पानी,कृषि और रोजगार विकास लगभग संभावित है!
परमाणु समझौते से एअक तरफ जहाँ बिजली की समस्या से निजात मिलने की पूरी संभावना है,दूसरे सापेक्ष रूप से इसका असर हमारे ग़ैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों जैसे कोयला,पैट्रोल, डीजल इत्यादी अन्य पेट्रोलियम पदार्थों पर हमारी निर्भरता और विवशता भी कम हो जायेगी ! परमाणु ऊर्जा से बिजली उत्पादन से पानी को जहाँ कृषि,उद्योग और व्यापर के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा ,वहीँ इससे कृषि उत्पादकता ,लागत और लाभ से सुधार की गुंजाईश के अतिरिक्त पानी की उपलब्धता भी सुनिश्चित हो सकेगी
इसमें कोई दो मत नही है कि कृषि छोड़कर शहर आने वाले मजदूर-किसान कृषि उत्पादकता ,लागत और लाभ में हासिल शून्यता के कारण ही सहर में रोजगार तलाशते हैं,लेकिन सस्ती बिजली,पानी और सिंचाई के लिए आवश्यक पानी की उपलब्धता उनकी कृषि लागत को कम करेगी ही,उनके कृषि उत्पादन और लाभ को भी बढ़ायेगी ! शहरी पलायन बंद होने में थोडा समय जरूर लग सकता है,लेकिन आने वाले समय में ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार की पूरी गुंजाईश दीखती है,क्योंकी कृषि उत्पादन में खुदरा कारोबारी व बडे व्यापारियों के दखल से किसानों को सब्जी,फल और अनाज का बेहतर दाम मिलना संभावित है और कृषि लागत कम होने से एक तो किसान कि कमाई में वृद्धि होगी,दूसरे सिंचाई के लिए पानी और बिजली की उपलब्धता से फसल को सूखने और नुक़सान का खतरा भी कम होगा,तीसरे बिजली उत्पादन के लिए बडे बाधों के निर्माण पर भी अंकुश लग पायेगा और कृषि और कृषि जनित कार्यों से जुडे लोगों को मुनाफा मिल सकेगा,चौथा बेरोजगारी कि समस्या भी हद तक सुधारी जा सकेगी !
वजह युवाओं से कृषि से मोह्भंगता का कारण लाभ शून्यता है,जो बिजली ,पानी और अन्य कृषि जनित उपकरणों व तकनीकी जैसे डीजल इंजन,नलकूप,ट्रैक्टर-ट्राली और इंधन चालित उपकरण सस्ते होने से कृषि की तरफ लोगों का रूझान वापस लौटने की पूरी संभावना है,दूसरे कृषि फसलों का बाज़ार जिस तरह से फैला है उससे रोजगार के अवसर भी तेज़ी से बढ़े हैं.इससे उन किसानों-मजदूरों और उनके बच्चों को गाँव से बाहर रोजगार तलाशने की आवश्यकता कम दीखती है और बेरोजगारी की भयावह समस्या से उपजे अपराध ,मारकाट ,चोरी,अपहरण और अब आतंकवाद जैसे अंधकार से युवाओं और समाज को बचाने में भी मदद मिलेगी !
कृषि और ग्रामीण समाज की उन्नति ही किसी देश की प्रगति कही जाती है! उन्नतशील किसानों से एक तरफ जहाँ ग्रामीण समाज के खान-पान ,पहनावा,स्वस्थ्या ,शिक्षा और जीवन स्तर में सुधार आएगा ,दूसरी तरफ बदलते परिवेश में भारत की राजनैतिक और आर्थिक हैसियत की वृद्धि की संभावना से इंकार नही किया जाना चाहिऐ !

युवा सांसदः बुरा ना मानो, प्रायोजित कार्यक्रम से लगते हैं।

आज जब भी भारतीय लोकतंत्र में युवा चेहरों की बात होती है तो संसद में युवाओं की भागीदारी की बात सिरे से ही बेमानी लगती है। वो इसलिए क्योंकि नजर दौड़ाने पर चुनाव में जीत कर आया एक भी युवा सांसद ऐसा नहीं दिखता जो वाकई में जनता का असल जनप्रतिनिधि लगे, मुझे ऐसा लगता है कि संसद में युवा चेहरे के नाम पर पेश किए गए ये चेहरे वास्तविक नहीं, बल्कि प्रायोजित हैं। क्योंकि उत्तराधिकार के नाम पर मिले जनता के भावनात्मक श्रद्धांजलि से इतर इनका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। वो इसलिए कि संसद पहुंचे अधिकतर युवा बुर्जुवा नेताओं की पारिवारिक फसल से अधिक कुछ नहीं हैं। क्‍योंकि इन युवा फसलों को बुर्जुवा सांसदों द्वारा पारिवारिक धंधे को विस्‍तार देने के लिए साजिशन संसद में घुसेडा गया है। संसद में इन्‍हें घुसेडने के लिए कभी जनता जाति विशेष के नाम पर बरगलाई गई है व कभी नेता विशेष के फूलों के लिए इमोशनल फूल बनाई जाती रही है। अब आप ही बताइए इन श्रेणी के युवाशक्‍ति संसद भवन में क्‍या खाक आंदोलन छेडेगे, जिन्‍हें सामाजिक सरोकार नहीं राजनीतिक पैतरेबाजी की डिग्री पहले दी जाती है।
उल्‍लेखनीय है ऐसा चुनाव इतिहास में क्रमवार चलता आया है लेकिन इन फसलों को खाद पानी से चमकाने के सिवाय प्रतिफल की अपेक्षा ना ही इमोशनल जनता करती है ना ही फसलों के मालिक करते है। युवाओं का यह फौज जनता के कितने काम आती है यह बताने की जरूरत मैं यहां नहीं समझता, लेकिन एक बात यहां खटकती है वो यह कि युवा नेतत्‍व को संसद में लाने का दम भरने वाले नेता किसी ऐसे युवा को मौका क्‍यों नहीं देते जो सचमुच युवाओं की पैरोकारी करते हुए राजनीति में आना चाहता है व अपने युवा जज्‍बे का इस्‍तेमाल जनता के हित के लिए करना चाहता हैं। हां, ऐसे युवाओं को पार्टियां जरूरी मौका देती है जो वर्षों पहले या तो गुमराह हो चुकी है या गुमराह होने के मोड पर खडी होती है। क्‍योंकि ऐसे युवा एक तरफ जहां पार्टी की लठृमार राजनीति में काम आते है तो दूसरी तरफ धक्‍कामुक्‍की व तोडफोड के लिए ऐसे बाहुबली नेताओं की पार्टी में जरूरत भी तो होती है। अब सब काम जनता की भलाई के लिए थोडे ही किया जाएगा, कुछ पार्टी की मजबूरी भी तो होती है। फिर उनके लाल सिर फुडवाने के लिए थोडे ही राजनीति में आएं हैं। मुझे तो कोई शिकायत नहीं है, बस ठसक इस बात की रहती है कि युवाओं के वजूद को इसमें बेवजह ही मारा जा रहा है।
क्‍योंकि जहां तक युवाओं की परिभाषा मुझे मालूम है, मेरी समझ में जिस युवा का खून देशहित व जनहित मसले पर आवाज उठाने से पहले और बाद तक खौलता रहे वही असल युवाशक्‍ति है। क्‍योंकि वो युवाशक्‍ति युवा हो ही नहीं सकता जिसका खून राजनीतिक फायदे व नुकसान को समझने के बाद उबाल मारे। मेरी समझ में युवाशक्‍ति का सच्‍ची परिभाषा यही होनी चाहिए थी। लेकिन अफसोस इस बात का है कि संसद में पहुंचे अधिकांश युवा इस श्रेणी के युवा हैं ही नहीं, बल्‍कि (मुझे कहने में कोई संकोच नही) मोडीफाइड युवा है। क्‍योंकि अभी पिछले दिनों संसद भवन से आई एक रिपोर्ट भी यही कुछ कह रहीं है। संसद से आई रिपोर्ट में कहा गया हे कि चुनाव में जीत कर संसद पहुंच चुके ऐसे युवा सांसदों में से कोई संसद भवन में अभी तक उपस्‍िथत नहीं हुआ है, अब आप ही अनुमान लगा लीजिए ऐसे युवा संसद में जनता की आवाज को क्‍या उठाऐंगे।
मेरी समझ में हम यहां किसी एक का उदाहरण पेश करने करने की जरूरत नहीं है, क्‍योंकि हम यहां लतमरूआ पहलवानों की चर्चा नहीं कर रहें हैं।

पत्रकारिए धर्म के बदलते-सिमटते पैमाने

शिव ओम गुप्‍ता
पत्रकारिए बिडंबना
दिल्‍ली के रहने वाले 28 वर्षीय विकास को एक साल पहले जब एक प्रतिष्‍ठित हिन्‍दी चैनल में बतौर प्रशिक्षु नौकरी मिली तो माथे से बेरोजगारी का कलंक हटने से विकास काफी प्रसन्‍न था। दूसरी तरफ सामाजिक सरोकारों के लिए लड़ने का जोश हिलोरे मार रहा था। बगैर पल गवांए विकास लड़ाई में उतर जाना चाहते थे। पर ये क्‍या हुआ। अभी पत्रकारिता में कुछ ही दिन बीते थे कि अचानक विकास साहब का कथित पत्रकारिता से ही मोहभंग हो गया। उम्र ढल जाए कि इससे पहले आज विकास एक सरकारी नौकरी ढूंढने में मशगूल है ताकि बाकी की जिंदगी शांति से अपनी शर्तों पर जी सकें।
दिल ढूंढता है फिर वहीं
यह हकीकत किसी एक युवा पत्रकार की नहीं, बल्‍कि हर उस युवा पत्रकार की है, जो वास्‍तविकता से परे इस पत्रकारिता की काली कोठरी में खिंचे चले आ रहे हैं। फिर तो ग्‍लैमर, पैसा और साथ में समाजसेवा के गढ़े हुए मानकों को कंठस्‍थ करके ही उस कोठरी से बाहर निकलते हैं, लेकिन वो युवा पत्रकार जिनके सपने चकनाचूर हो गए, जब ग्‍लैमर, पैसा और समाजसेवा के गढ़े इन तीनों मानकों में से एक भी हाथ में नहीं पाता। तो उस पर क्‍या बीतती है, समझा जा सकता है।
ग्‍लैमर, पैसा और पत्रकार
चलिए बात ग्‍लैमर से ही शुरू करते हैं, आप समझाइए। मौजूदा दौर के समाचार पत्रों और चैनलों की भीड़ में आज कितने युवा पत्रकार प्रभाष जोशी, प्रणय राय और विनोद दुआ जैसे बड़े नाम बन पाऐंगे। प्रभाष जोशी उस समय के पत्रकार रहें हैं जब अखबार सामाजिक सरोकारों से जुड़े मिशनों के लिए बिकते थे न कि बांबे स्‍टॉक एक्‍सचेंज में अपने शेयर होल्‍डरों की संख्‍या बढ़ाने के लिए, जैसा आज है। रही बात प्रणय राय, दीपक चौरसिया और पुण्‍य प्रसून बाजपेयी जैसे गिनती के पत्रकारों की, तो ये भारतीय टीवी पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार रहे हैं जब टीवी पत्रकारिता के नाम पर समाचार चैनलों के एक दो ही विकल्‍प रहा करते थे।
दौर-ए-जहन्‍नुम
लेकिन क्‍या आज टीआरपी और मसाला खबरों की भीड़ में कोई अंगदी पैर जमाने की गल्‍ती कर पाएगा, अपने आपको इन्‍हीं की तरह मजबूती से स्‍थापित कर पाएगा। मान लिया कोई फैंटम बन भी गया तो इस बात की गारंटी नहीं है कि दफ्तर उनकी सेवाओं को कब समाप्‍त कर दे और उनके स्‍टार-दम को अर्श से फर्श पर दे मारें। एक टीवी चैनल से धोखा खा चुके पुण्‍य प्रसून बाजेपयी जो पुराने खिलाड़ी थे बगैर छीछालेदर के निबट गए। लेकिन वहीं अगर कोई नया खिलाड़ी होता तो उसे दूसरे संस्‍थानों में नौकरी पाने में कितने तलवे घिसने पड़ते, भुक्‍तभोगी युवा समझ चुके हैं।

दम है जान है फिर भी हैरान हैं
एक संस्‍थान में सभी तो हीरो बन नहीं सकते, आखिर रोटी और रोजी का सवाल है जिसके लिए समझौते पर तैयार होना लाजिमी है। वह पहले अपना तन काला करता है फिर मन काला होने देता है यहीं नही धन कमाने के लिए कुछ भी कहने-सुनने के लिए तैयार भी है। मतलब तन मन धन सारे काले करने के बाद भी असुरक्षा और अनिश्‍चितता की भंवर में उसे डूबना ही है। बतलाइए दम और जान के बगैर इंसान तो चल नहीं सकता एक पत्रकार ही चल पाता है क्‍योंकि झटके से स्‍टार्ट और बदं होने वाले ऐसे मशीनी पत्रकार पेट्रोल तब तक पाते है जब तक वे मालिक के मनमुताबिक चलते है वरना मशीन बंद तो पेट्रोल बंद। यही दस्‍तूर है मशीनीकरण का। बुरा मत मानिएगा।
का करूं सजनी भाए ना कॉलम
भई दिल्‍ली और मुंबई जैसे मीडिया केंद्रों में जिंदगी जीने के लिए आप बेहद कंजूसी से भी पैसा खर्च करेंगे तो 8 से 10 हजार का भट्ठा बैठ जाएगा। बावजूद इसके ऐसे सैकड़ों युवा पत्रकार इस विचित्र सी दुनिया में आपको विचरण करते दिख जाऐंगे जो समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में 4 से 8 हजार में ड्यूटी बजाने को तत्‍पर दिख जाऐंगे। यहीं नहीं कितने तो ऐसे है जो महीनों इस आस में मुफ्त में ही सेवाएं दे रहे हैं कि कब बुलावा आ जाए और बेड़ा पार लगे। कई युवा पत्रकार तो ऐसे भी है जिन्‍हें बावजूद नौकरी के खुद का खर्चा चलाने के लिए घर से पैसे मंगाने पड़ रहें हैं। खुद की जिम्‍मेदारी उठाने में काले हो चुके ऐसे पत्रकार को करियर के चार-पांच साल बाद जब घर-बार और शादी-विवाह की जिम्‍मेदारी निभानी का भार आता है तो वह जद्दोजहद करता दिखता है। ऐसे में बहन की शादी या माता-पिता की बीमारी के इलाज जैसी अगर कोई बड़ी पारिवारिक जिम्‍मेदारी ऊपर आ गई तो कल्‍पना ही कंपा देती है।

व्‍यथा की कथा
मैं आपको एक पत्रकार दोस्‍त के बारें में बताता हूं जिनकी शादी को पिछले तीन साल से ज्‍यादा हो चुके हैं और वे चाहते हुए अगले दो साल तक बच्‍चा पैदा नही करना चाहते। उनका कहना है कि जब वेतन बढेगा या कोई अच्‍छी नौकरी मिलेगी तभी वे इस बारे में सोचेंगे। रजिस्‍ट्रार ऑफ न्‍यूज पेपर ऑफ इंडिया के आंकड़ो मुताबिक यूं तो देश में चार हजार से ज्‍यादा हिन्‍दी पत्र-पत्रकाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन हिन्‍दी मीडिया बाजार में राज करने वाले गिनती के दो चार नामी संस्‍थानों को छोड़ बाकी लागत ही नहीं निकाल पा रहें है तो पत्रकारों को तनख्‍वाह कहां से देंगे, और अगर कोई लागत निकाल रहें हैं तो वे गुलाम पत्रकारों के शोषण से कमा रहे हैं। ऐसे में दो चार हिंदी मीडिया संस्‍थान बुर्जुवा बनने में तनिक भी लज्‍जा महसूस नहीं कर रहे हैं और हम मार्क्‍स के सर्वहारा मजदूरों की तरह अपना सब कुछ हार रहे हैं।
मरता क्‍या ना करता
मजदूर रूपी पत्रकार सैंकड़ों हैं और नौकरी दस-बीस। अब ऐसे में इन संस्‍थानों की ओर से सस्‍ता श्रम क्‍यों नहीं खरीदा जाएगा। यह ऐसा बाजार है जहां बाजार में खड़े गधों और घोड़ों की कीमत बराबर लगती है। ऐसा समाजवाद शायद ही कहीं देखने को मिले। अंग्रेजी मीडिया संस्‍थान में पिछले तीन साल से काम करने वाले और हिन्‍दी संस्‍थान में पिछले दस-बीस साल से काम करने वाले के वेतन में अंतर देख कर आसानी से समझ सकते हैं कि स्‍थिति कितनी भयावह है। प्रत्‍येक वर्ष सरकारी और कुकुरमुत्‍ते मीडिया संस्‍थान लाखों की संख्‍या में डिग्रियां रेवड़ियों की तरह बांट रही हैं। लेकिन रोजगार देने वाले संस्‍थानों की स्‍थिति जस की तस बनी हुई है। लाइन में लगे रहे नंबर आए तो उतर जाओ और जितना नहा सको नहा आओ, वरना नंबर आने का इंतजार करो। यहां अंग्रेजी पत्रकारिता की कर्मठता बताने के लिए रीतिकालीन कवि बनने की कोशिश नहीं की जा रही है बल्‍कि सिर्फ वास्‍तविकता की चादर पर लगे धब्‍बों को दिखाने की कोशिश की जा रही है।
मनी है तो ठनी है
आज वैश्‍विक बाजार होने के कारण अंग्रेजी पत्रकारों के पास ढेरों विकल्‍प हैं। ऐसे में अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों को प्रतिस्‍पर्धा में आगे आने के लिए कुशल पत्रकारों की जरूरत है और हिन्‍दी पत्रकारों से कहीं अच्‍छा वेतन देकर वे ऐसे अंग्रेजी पत्रकारों की सेवाएं भी ले रहे हैं। यह बात किसी भी हिन्‍दी और अंग्रेजी पत्रकार के पास उपस्‍थित बुनियादी और आर्थिक संसाधनों को देखकर स्‍वत: ही लगाया जा सकता है। जबकि इसके उलट हिन्‍दी संस्‍थानों में अनुवाद, पेज मेकिंग से लेकर रिर्पोटिंग तक सभी का एक ही आदमी से कराए जाते हैं। लेकिन हालात जस के तस है। बुनियादी और आर्थिक संस्‍थानों की कमी है और उम्र थोड़ा बढ़ जाने पर इधर-उधर भागने का कोई विकल्‍प भी जारी है। बाजार में गिनती के चार लाला की दुकान है एक से बचोगे तो दूसरा नोचेगा।
क्‍या करेगा भईया
ऐसे में आप किसी हिन्‍दी पत्रकार से कैसे अपेक्षा कर सकते है कि वह प्रेसविज्ञप्‍ति छापने पर पैसे न ले या गिफ्ट पाकर किसी कंपनी का पीआर और पब्‍लिसिटी करने से बचे, प्रशासनिक धांधलियों से बचे, या रोज एक टाइम का खाना प्रेस कांफ्रेंस के दौरान खाते दिख जाए। इन्‍हें टोकने का आपको कोई अधिकार नहीं है। क्‍योंकि पेट सबको पालना है। सबको अपने बच्‍चों को डीपीएस में पढ़ाना है। सबको ब्रांडेड कपड़े पहनने है।

कोई समझाए ना
अपनी सामाजिक और पारिवारिक जिम्‍मेदारियों को निभाने के लिए ही नौकरी के एवज में पैसे की दरकार हर कोई करता है। कुछ हिन्‍दी मीडिया संस्‍थान बहुत अच्‍छा पैसा दे रहे हैं। लेकिन ऐसे हिन्‍दी मीडिया संस्‍थानों की संख्‍या इक्‍का-दुक्‍का ही है। जिनमें से आधे मूल रूप अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों की उपज है। दूसरे ऐसे संस्‍थान ज्‍यादा पैसा देने पर काम की जगह खून पी रहें हैं। जिनमें मुख्‍य तौर पर हिन्‍दी टीवी संस्‍थान शामिल है, जहां प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति से औसतन 12 से 14 घंटे काम करवाया जा रहा है। अब अगर कोई आदमी 24 घंटे में से 12 घंटे काम करेगा, 7 से 8 घंटे सोएगा, 2-3 घंटे ऑफिस आने-जाने में बरबाद करेगा तो फिर वो इंसान क्‍यों है, मशीन ही बन जाए क्‍योंकि 7-8 घंटे का आराम तो मिल की मशीनों को भी मिल जाता है।
जिंदगी मौत ना बन जाए संभलो यारों
लाख बुरे हालातों के बावजूद आज भी युवा पत्रकारों की एक ऐसी खेप है जो इस इंडस्‍ट्री में सरोकारों की ज्‍वाला को लेकर आती है। भंयकर रचनात्‍मकता से ओत-प्रोत ये लोग हिन्‍दी मीडिया के वर्तमान में सबसे ज्‍यादा प्रताड़ित होने का कारण ये स्‍वयं है क्‍योंकि ये हिन्‍दी पत्रकारिता के उस इतिहास को पढ़ कर पत्रकार बनने चले है जो आजादी और वंचितों की लड़ाई से भरी पड़ी है। लेकिन भईया माहौल बदल गया है। कलम की ताकत लाला की दुकान हो गई है। जिससे ज्‍यादा मुनाफा होगा, वही छपेगा। लेकिन ये बात इन पत्रकारों की समझ में ही नहीं आती है। क्‍योंकि इन्‍होंने पत्रकारिता के वसूलों और धर्म को गले जो लगा बैठे हैं। अब इस तरह की लड़ाई लड़ने चलोगे तो राह में कंकड़-पत्‍थर तो जरूर मिलेंगे, हां वो सुकूंन की गांरटी अब नहीं दी जा सकती है।

ना समझे तो अनाड़ी हो
बाजारवाद को अभी तक नहीं समझे हैं तो अनाड़ी तो हो ही, जल्‍दी नहीं चेते तो पनवाड़ी की दुकान भी खोलनी पड़ सकती है। अब आपका पत्रकारिए धर्म आपसे चाहता है कि आप गरीबी और विकास से जूझ से रहे बुंदेलखंड और विदर्भ के वर्तमान हालातों पर स्‍टोरी करो, लेकिन टीआरपी की मांग है कि राखी सावंत का स्‍वयंवर, करीना की बिकनी, आमिर के ऐट एब्‍स जैसी खबरें। जिसे देखते ही दर्शकों की दीदे टीवी चैनल पर अटक के रह जाए। तो वहीं खबरें चलेंगी, जिससे टीआरपी रेट बढ़े, आपने भले ही बढ़िया पैकेज बनाया हो, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। हिन्‍दी अखबारों का भी यही हाल है। आधा समय अंग्रेजी खबरों के अनुवाद में बीतता है तो आधा पेज मेकिंग में, थोड़ी बहुत रिर्पोटिंग जो होती भी है, उसमें रिर्पोटर को संस्‍थान की सोच, औद्योगिक और राजनैतिक घरानों से संबंधों की मर्यादा, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों से मिलने वाले विज्ञापनों का लिहाज रखना पड़ता है। ऐसे में पत्रकार और मीडिया संस्‍थान के आदर्श में एक गहरा अंतर हो जाता है। जिसका परिणाम या तो अवसादग्रस्‍त पत्रकार नौकरी छोड़ देता है अथवा मीडिया संस्‍थान उसे खुद बाहर का रास्‍ता दिखा देती है। इसके अलावा सामाजिक सरोकारों की खबर करते समय अगर मुकदमेबाजी या अपराधियों से पंगा लेना पड़ा तो वो भी आपके जिम्‍मे।
सबसे बड़ा रुपैया
वैसे गलती मीडिया संस्‍थानों की भी नहीं है। भई आगे रहने का सारा खेल टीआरपी और सर्कुलेशन के मत्‍थे है। चटक-मटक नहीं दिखाऐंगे, नहीं छापेंगे तो टीआरपी और सर्कुलेशन कैसे बढ़ेगा। दर्शक और पाठक भी तो यही पढ़ना और देखना चाहता है। या यह भी कह सकते हैं कि हम दर्शक को जागरूक ही नहीं करना चाहते, मुनाफा जो लक्ष्‍य है।

काश ऐसा हुआ होता
मुझे ऐसा लगता है पत्रकारिता के पतन का कारण हमारे देश का देर से आजाद होना है। सोचिए देश अगर सही तरीके से 1857 में ही आजाद हो जाता, तो जल्‍दी विकास होता, जल्‍दी बाजारवाद आता। और विकास के शुरूआती दौर में मीडिया संस्‍थानों की ऊल-जुलूल सामाग्री को पढ़कर, देख कर दर्शक और पाठक अब तक उकता चुके होते और आज इस समय हमारे पास जागरूक पाठक और दर्शकों की एक बहुत भारी खेप होती। जो विकास की खबरों में ही रूचि लेती। ऐसे में खबरें भी विकास के मुद्दों के लिए ही होती और वे पत्रकार भी खुश रहते जो सामाजिक सरोकारों की लड़ाई के लिए ही पत्रकारिता का रास्‍ता चुनते हैं।